National green tribunal
ग्रीन ट्रिब्यूनल क्या है (What is National Green Tribunal - NGT)
02 जून 2010 को भारत नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल कानून अस्तित्व में आया। 1992 में रियो में हुई ग्लोबल यूनाइटेड नेशंस कॉन्फ्रेंस ऑन एन्वॉयरनमेंट एण्ड डेवलपमेन्ट में अन्तरराष्ट्रीय सहमती बनने के बाद से ही देश में इस कानून का निर्माण जरूरी हो गया था। भारत की कई संवैधानिक संस्थाओं ने भी इसकी संस्तुती की थी। नेशनल ग्रीन ट्रीब्यूनल एक संवैधानिक संस्था है। इसके दायरे में देश में लागू पर्यावरण, जल, जंगल, वायु और जैवविवधता के सभी नियम-कानून आते हैं।
अब जनहित याचिका के साथ एनजीटी में जाने का भी विकल्प है। एनजीटी ने असरकारक फैसले लिए हैं, जैसे मेघालय में कोयला खनन पर रोक (अगस्त 2014), जो प्रदूषण का जिम्मेदार हो वो इसकी क्षतिपूर्ति करे। रेलवे स्टेशन पर साफ-सफाई, रेलवे ट्रेक के किनारे बाड़ लगाना, केरल में बालू खनन पर रोक आदि ऐतिहासिक फैसले लिए। प्लास्टिक के प्रयोग पर प्रतिबन्ध भी महत्त्वपूर्ण फैसला है।
लोगों की जिज्ञासा रहती है कि एनजीटी क्या है। कौन-सा कानून लागू करती है, यह संस्था? इसका ढाँचा क्या है, आदि। कोर्ट और ट्रिब्यूनल में क्या अन्तर है? ऐसे कितने सवाल आम लोगों के मन में आते हैं। ट्रिब्यूनल यानी एक विशेष कोर्ट। इसे न्यायाधिकरण ही कहते हैं। वह क्षेत्र विशेष सम्बन्धी मामलों को ही लेता है। जैसे एनजीटी में पर्यावरण, रक्षा, वनों के संरक्षण, इससे जुड़ी क्षति-पूर्ति या लोगों को हुए नुकसान आदि के बारे में ही निर्णय लिए जाते हैं। दूसरी ओर अगर कोर्ट को देखें तो इसमें अनेक मामले आते हैं, जो विविध विषय पर आधारित होते हैं।
18 अक्टूबर 2010 को एक अधिनियम के द्वारा पर्यावरण से सम्बन्धित कानूनी अधिकारों को लागू करने एवं व्यक्तियों और सम्पत्तियों के नुकसान के लिए सहायता और क्षति-पूर्ति देने के लिए यह ट्रिब्यूनल बनाया गया। इसमें पर्यावरण संरक्षण, वनों तथा अन्य प्राकृतिक संसाधनों से सम्बन्धित मामलों के प्रभावी और त्वरित निपटारे भी किए जाते हैं। यह ट्रिब्यूनल सिविल प्रोसीजर कोड 1908 के अन्तर्गत तय प्रक्रिया द्वारा बाधित नहीं है, बल्कि यह नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्तों द्वारा निर्देशित है। इसका मुख्य केन्द्र, दिल्ली में है। इसकी चार क्षेत्रीय शाखाएं पुणे, भोपाल, चेन्नई और कोलकाता में स्थापित की गई हैं। इसके अलावा जरूरत के हिसाब से इसकी अन्य शाखाएं बनाई जा सकती हैं। एनजीटी के चेयरमैन सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त जज होते हैं। उनके साथ न्यायिक सदस्य के रूप में हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त जज होते हैं। एनजीटी में सिर्फ इन कानून से जुड़ी बातों को चुनौती दी जा सकती है-
जल (रोक और प्रदूषण नियन्त्रण अधिनियम, 1974)
वन संरक्षण कानून 1980
जल (रोक और प्रदूषण नियंत्रण) उपकर कानून, 1977
वायु (रोक और प्रदूषण नियन्त्रण) अधिनियम 1981
पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986
पब्लिक लायबिलिटी इन्श्योरेंस कानून 1991
जैव विविधता कानून 2002
हालाँकि वन्य जीव संरक्षण कानून 1972, भारतीय वन कानून 1927 और राज्य द्वारा जंगल और पेड़ की रक्षा के कानून एनजीटी के क्षेत्राधिकार में नहीं आते हैं। हाँ, उच्चतम न्यायालय में या उच्च न्यायालय में जनहित याचिका या सिविल सूट लाए जा सकते हैं। एनजीटी में आवेदन डालने का तरीका बहुत ही सरल है। क्षति-पूर्ति के मामलों में दावे की रकम की एक फीसदी राशि अदालत में जमा करनी होती है। पर जिन मामलों में क्षति-पूर्ति की बात नहीं होती है, उसमें मात्र एक हजार रु. की फीस ली जाती है। आदेश और निर्णय देते समय एनजीटी टिकाऊ विकास की ओर ध्यान देता है तथा पर्यावरण से जुड़ी सावधानियाँ बरतने की कोशिश करता है। यह संस्था मानती है कि पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाले इसकी भरपाई भी करें। कानून की सही जानकारी हो तो एनजीटी में कोई भी अपना मुकदमा स्वयं लड़ सकता है।
कैद की सजा
यदि इसके आदेश को नहीं माना जाए तो तीन साल की कैद या दस करोड़ रु. का दण्ड या ये दोनों हो सकते हैं। इससे ट्रिब्यूनल के बनने के बाद इसके अधिकार क्षेत्र के मामले दूसरी सिविल अदालतों में नहीं ले जा सकते। अपनी स्थापना से जनवरी 2015 तक एनजीटी के पास कुल 7768 केस आए। इसमें से 5167 केस में फैसले दे दिए गए पर 2601 मामलों में फैसले अभी आने बाकी हैं। भारत के संविधान में 1976 में संशोधनों के द्वारा दो महत्त्वपूर्ण अनुच्छेद 48 (ए) तथा 51 (ए) जोड़े गए। इससे पहले संविधान में पर्यावरण के सम्बन्ध में कोई प्रावधान नहीं था। 48 (ए) राज्य सरकार को निर्देश देता है कि वह पर्यावरण की सुरक्षा और सुधार सुनिश्चित करें तथा देश के वनों और वन-जीवों की रक्षा करें। 51 (ए) बताता है कि नागरिकों का कर्तव्य है कि वह पर्यावरण की रक्षा करें, इसका संवर्द्धन करें तथा सभी जीवधारियों के प्रति दया का भाव रखें। हालाँकि इससे पहले भी कुछ राज्यों ने पर्यावरण की रक्षा के लिए कदम उठाए थे।
जैसे उड़ीसा नदी प्रदूषण निषेध कानून 1953, महाराष्ट्र जल प्रदूषण निषेध कानून 1969। किन्तु ये प्रयास छोटे स्तर पर थे तथा प्रभावशाली नहीं थे। पर 1972 के बाद भारत सरकार इस बारे में सजग हुई। वन्य जीव संरक्षण कानून 1972, जल प्रदूषण नियन्त्रण व रोकथान कानून 1974 आदि आए। फिर 1986 में पर्यावरण संरक्षण आया, जिसमें पिछले कानून की खामियाँ दूर की गईं। 1997 में नेशनल एनवायनरमेंट अपीलेट अथॉरिटी कानून 1997 तथा बायोलॉजिकल डायवरसिटी जैव विविधता कानून 2002 आया। यहाँ यह बताना भी अतिआवश्यक है कि जनहित याचिका की मदद से पर्यावरण को बचाने के अनेक प्रयास पिछले तीन दशकों में किए गए। हमारे देश की न्यायपालिका मानती है कि न्याय तक सबकी पहुँच हो चाहे कोई व्यक्ति गरीब, अनपढ़ या अनजान हो। एमसी मेहता बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (एफआईआर 2001 एससी 1948) में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि वाहनों के कारण दिल्ली में अत्यधिक वायु प्रदूषण होता है, जिससे मनुष्य के जीवन के अधिकार का हनन होता है। इसलिए निर्देश दिए गए कि दिल्ली में सार्वजनिक वाहनों को सीएनजी से चलाए।
चर्च ऑफ गॉड इन इंडिया बनाम केके आर मजेस्टिक कॉलोनी वेलफेयर एसो. (एफआईआर 2000 एससी 2773) याचिका में ध्वनि प्रदूषण पर न्यायालय ने सख्ती दिखाई और कहा कि ध्वनि प्रदूषण के कारण अनुच्छेद 21 में दिए अधिकार का उल्लंघन होता है।
अब जनहित याचिका के साथ एनजीटी में जाने का भी विकल्प है। एनजीटी ने असरकारक फैसले लिए हैं, जैसे मेघालय में कोयला खनन पर रोक (अगस्त 2014), जो प्रदूषण का जिम्मेदार हो वो इसकी क्षतिपूर्ति करे। रेलवे स्टेशन पर साफ-सफाई, रेलवे ट्रेक के किनारे बाड़ लगाना, केरल में बालू खनन पर रोक आदि ऐतिहासिक फैसले लिए। प्लास्टिक के प्रयोग पर प्रतिबन्ध भी महत्त्वपूर्ण फैसला है।
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